महाजनो येन गतः स पन्थाः
(यक्षयुधिष्ठिरसंवाद-117)
महापुरुष जिस मार्ग से जाते हैं वही मार्ग है।
(यक्षयुधिष्ठिरसंवाद-117)
महापुरुष जिस मार्ग से जाते हैं वही मार्ग है।
( श्रीमद्भगवद्गीता माहात्म्यं)
योगासनों से हम स्थूल शरीर की विकृतियों को दूर करते हैं। सूक्ष्म शरीर पर योगासनों की अपेक्षा प्राणायाम का विशेष प्रभाव होता है, प्राणायाम से सूक्ष्म शरीर ही नहीं, स्थूल शरीर पर भी विशेष प्रभाव प्रत्यक्ष रूप से होता है। हमारे शरीर में फेफड़ों, हृदय एवं मस्तिष्क का एक विशेष महत्त्व है और इन तीनों का एक दूसरे के स्वास्थ्य से घनिष्ठ सम्बन्ध भी है।
(योगदर्शन 2.52,53)
प्राणायाम करने से मन पर पड़ा हुआ असत्, अविद्या एवं क्लेश-रूपी तमस् का आवरण क्षीण हो जाता है। परिशुद्ध हुए मन में धारणा (एकाग्रता) स्वतः होने लगती है तथा धारणा से योग की उन्नत स्थितियों-ध्यान एवं समाधि-की ओर आगे बढ़ा जाता है।
शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्।
(महाकवि कालिदास - महाकाव्य 'कुमारसम्भवम्')
शरीर ही धर्म करने का पहला साधन है। इसका मतलब है कि अगर शरीर स्वस्थ है, तो धर्म के सभी साधन अपने-आप सफल होते जाते हैं। वहीं, अगर शरीर अस्वस्थ है, तो धर्म का कोई भी साधन सफल नहीं हो सकता।
शरीर की सारे कर्तव्यों को पूरा करने का एकमात्र साधन है। इसलिए शरीर को स्वस्थ रखना बेहद आवश्यक है, क्योंकि सारे कर्तव्य और कार्यों की सिद्धि इसी शरीर के माध्यम से ही होनी है। अतः इस अनमोल शरीर की रक्षा करना और उसे निरोगी रखना मनुष्य का सर्वप्रथम कर्तव्य है। ‘पहला सुख निरोगी काया’ यह स्वस्थ रहने का मूल-मंत्र है।
धर्मार्थकाममोक्षाणामारोग्यं मूलमुत्तमम् ।
रोगास्तस्यापहर्तारः श्रेयसो जीवितस्य च ॥
(चरक सूत्रस्थान 1.15)
धर्म का अनुष्ठान, अर्थोपार्जन, दिव्यकामना (शिव-संकल्प) से सन्तति-उत्पत्ति तथा मोक्ष की सिद्धि इन चतुर्विध पुरुषार्थों को सिद्ध करने के लिए सर्वतोभावेन स्वस्थ होना परम आवश्यक है। जहाँ शरीर रोग-ग्रस्त है, वहाँ सुख, शान्ति एवं आनन्द कहाँ? भले ही धन, वैभव, ऐश्वर्य, इष्ट-कुटुम्ब तथा नाम, यश आदि सब कुछ प्राप्त हो, फिर भी यदि शरीर में रक्त संचार ठीक से नहीं होता, अंग-प्रत्यंग सुदृढ नहीं एवं स्नायुओं में बल नहीं, वह मानव शरीर मुर्दा ही कहा जायेगा।
मानव-जीवन में निरोग देह और स्वस्थ मन प्राप्त करने के लिए आयुर्वेद का प्रादुर्भाव हुआ था, जो आज भी अतीव उपयोगी है। शरीर के आन्तरिक मलों एवं दोषों को दूर करने तथा अन्तःकरण की शुद्धि करके समाधि द्वारा पूर्णानन्द की प्राप्ति हेतु ऋषि, मुनि तथा सिद्ध योगियों ने यौगिक प्रक्रिया का आविष्कार किया है। योग-प्रक्रियाओं के अन्तर्गत प्राणायाम का एक अतिविशिष्ट महत्त्व है। पतंजलि ऋषि ने मनुष्य-मात्र के कल्याण हेतु अष्टांग योग का विधान किया है। उनमें यम, नियम और आसन बहिरंग योग के अन्तर्गत हैं, जो शरीर और मन को शुद्ध करने में सहायक हैं।
बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्।।2.50।।
बुद्धि-(समता) से युक्त मनुष्य यहाँ जीवित अवस्था में ही पुण्य और पाप दोनों का त्याग कर देता है। इसलिये तुम योग से युक्त हो जाओ, क्योंकि कर्मों में कुशलता ही योग है।
चिंता जरा मनुष्याणाम् ।
चिन्ता मनुष्यों की वृद्धावस्था का प्रमुख कारण है ।
चिता दहति निर्जीवं, चिंता चैव सजीवकम् ।
चिता निर्जीव को जलाती है , जबकि चिंता जीवन को ही जलाती रहती है।
( समयोचितपध्यमालिक )
अब सौंप दिया इस जीवन का, सब भार तुम्हारे हाथों में।
है जीत तुम्हारे हाथों में, नहीं हार तुम्हारे हाथों में॥
मेरा निश्चय बस एक यही, एक बार तुम्हे पा जाऊं मैं।
अर्पण करदूँ दुनिया भर का, सब प्यार तुम्हारे हाथों में॥
जो जग में रहूँ तो ऐसे रहूँ, ज्यों जल में कमल का फूल रहे।
मेरे सब गुण दोष समर्पित हों, करतार तुम्हारे हाथों में॥
यदि मानव का मुझे जनम मिले, तो तव चरणों का पुजारी बनू।
इस पूजक की एक एक रग का, हो तार तुम्हारे हाथों में॥
जब जब संसार का कैदी बनू, निष्काम भाव से करम करूँ।
फिर अंत समय में प्राण तजूं, निरंकार तुम्हारे हाथों में॥
मुझ में तुझ में बस भेद यही, मैं नर हूँ तुम नारायण हो।
मैं हूँ संसार के हाथों में, संसार तुम्हारे हाथों में॥
ऋग्वेद मंडल 1 सूक्त 1 मंत्र 1 से 9, अग्नि सूक्त
ऋषि - मधुच्छन्दा विश्वामित्र ।। देवता - अग्नि
।। छंद – गायत्री
अथ अग्नि सूक्तम्
अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम् ।
होतारं रत्नधातमम् ॥१॥
अग्निः पूर्वेभिऋषिभिरीड्यो नूतनैरुत ।
स देवाँ एह वक्षति ॥२॥
अग्निना रयिमश्नवत्पोषमेव दिवेदिवे ।
यशसं वीरवत्तमम् ॥३॥
अग्ने यं यज्ञमध्वरं विश्वतः परिभूरसि ।
स इद्देवेषु गच्छति ॥४॥
अग्निर्होता कविक्रतुः सत्यश्चित्रश्रवस्तमः ।
देवो देवेभिरा गमत् ॥५॥
यदङ्ग दाशुषे त्वमग्ने भद्रं करिष्यसि ।
तवेत्तत्सत्यमङ्गिरः ॥६॥
उप त्वाग्ने दिवेदिवे दोषावस्तर्धिया वयम् ।
नमो भरन्त एमसि ॥७॥
राजन्तमध्वराणां गोपामृतस्य दीदिविम् ।
वर्धमानं स्वे दमे ॥८॥
स नः पितेव सूनवेऽग्ने सूपायनो भव ।
सचस्वा नः स्वस्तये ॥९॥
इति अग्नि सूक्तम्
दैवीय सम्पद्
श्रीभगवान् ने कहा- निर्भयता, सत्त्वसंशुद्धि, ज्ञान-योगव्यवस्थिति अर्थात् ज्ञान और योग में दृढ स्थिति दान, दम, यज्ञ, स्वाध्याय, तप
आर्जव है।
अप्रियता और असत्य से रहित यथार्थ वचन, दूसरों की ओर से गाली या ताड़ना आदि मिलने पर
उत्पन्न हुए क्रोध को शान्त कर लेना, अहंकार
व स्वार्थ का परित्याग, चुगली न करना, प्राणियों, कोमलता, बुरे कामों में लज्जा, चंचलता का अभाव अर्थात् बिना प्रयोजन वाणी, हाथ, पैर
आदि की व्यर्थ क्रियाओं का न करना।
महान् विपत्ति में भी कर्त्तव्य-निश्चय की
क्षमता तथा मन को विषयासक्ति से रोके रखने की क्षमता का नाम धृति है। बाह्य शुद्धि, द्रोह न करना अर्थात् किसी के साथ विश्वासघात न
करना, घमण्ड न करना। है भारत! ये गुण दैवी
सम्पत्ति को अभिलक्ष्य कर जन्म लेने वाले पुरुष के होते हैं।
हे पार्थ! ‘जैसा
हे’ उससे अन्य रूप में स्वयं को प्रकट
करना/झूठा दिखावा करना, धन, रूप, बल या कुल आदि का गर्व, अपने में ही उत्कृष्टता समझना तथा अपनी
वास्तविक योग्यता से अपना अधिक आकलन करना, क्रोध, पारुष्य अर्थात् वाणी की कठोरता और अज्ञान- ये
दोष आसुरी सम्पत्ति को अभिलक्ष्य कर जन्मे हुए मनुष्य के होते हैं।
इनमें दैवी सम्पत्ति परिणाम में मोक्षदायक और
आसुरी बन्धनकारक मानी जाती है। हे पाण्डव! तू दैवी सम्पत्ति को साथ लेकर जन्मा हुआ
है, अतः शोक मत कर।
विजय रथ
दुहु दिसि जय जयकार करि, निज निज जोरी जानि।
भिरे वीर छत रामहि, उत रावनहि बखानि।।
रावनु रथी बिरथ रघुबीरा। देखि बिभीषन
भयउ अधीरा।।
युद्ध के मैदान में रावण रथ पर सवार
हैं और श्रीराम बिना रथ के जमीन पर खड़े हैं, यह
देखकर विभीषण बहुत चिन्तित व अधीर हो जाते हैं।
अधिक प्रीति मन भा सन्देहा। बन्दी चरन
कह सहित सनेहा।।
मन में श्रीराम के प्रति अत्यन्त
प्रीति होने के कारण स्नेह पूर्वक चरण पकड़कर चिन्तित होकर कहते हैं-
नाथ न रथ नहिं तन पद त्राना। केहि बिधि
जितब बीर बलवाना।।
हे नाथ न तो आपके पास रथ है ना ही शरीर
की रक्षा के लिए कोई कवच है ऐसी हालत में आप इस वीर बलवान रावण को कैसे जीत
पायेंगें?
सुनहु सखा कह कृपानिधाना। जेहिं जय होइ
सो स्यन्दन आना।।
विभीषण की चिन्ता देखकर मुस्कुराते हुए
श्री राम कहते हैं, कि हे मित्र! आप चिन्ता ना करें विजय
दिलाने वाला रथ तो कोई दूसरा ही होता है। वह रथ कैसा होता है वह मैं आपको बताता
हूँ।
सौरज धीरज तेहि रथ चाका। सत्य सील दृढ़
ध्वजा पताका।।
शौर्य और धैर्य उस रथ के दो चक्र हैं, सत्य और शील की दृढ़ ध्वजा उस रथ पर फहरा रही
है।
बल बिबेक दम परहित घोरे। क्षमा कृपा
समता रजु जोरे।।
बल, विवेक, दमन और दूसरों का हित करना ये इस रथ के घोड़े
हैं जो क्षमा, कृपा और समता रूपी रस्सी से जुड़े हुए
हैं।
ईश भजनु सारथी सुजाना। बिरति चर्म
सन्तोष कृपाना।।
ईश्वर का भजन इस रथ का अच्छा सारथी है, विरति= वैराग्य रूपी चाबुक उसके हाथ में है और
सन्तोष रूपी कृपाण भी उसके पास है।
दान परसु बुद्धि शक्ति प्रचण्डा। बर
विज्ञान कठिन कोदण्डा।।
विविध प्रकार का दान उसका फरसा है, प्रचण्ड बुद्धि ही उसकी सबसे बड़ी शक्ति है।
श्रेष्ठ ज्ञान-विज्ञान ही उसका कठोर धनुष है।
अमल-अचल मन त्रोण समाना। शम जम नियम
सिलीमुख नाना।।
चंचलता से रहित सदा स्थिर रहने वाला मन
इस योद्धा का तरकश है। शम,
5 यम, और 5
नियम उसके पैने-पैन बाण हैं।
कवच अभेद बिप्र गुर पूजा। एहि सम बिजय
उपाय न दूजा।।
विप्रजनों और गुरुजनों की पूजा ही अभेद
कवच है जिसे कोई भेद नहीं सकता। ये सब साधन इतने सशक्त हैं कि इनके समान विजय का कोई
और साधन हो ही नहीं सकता।
सखा धर्ममय अस रथ जाकें। जीतन कहँ न
कतहुँ रिपु ताकें।।
अतः हे मित्र विभीसण। जिसके पास ऐसा
धर्ममय रथ है उसको कभी कोई शत्रु जीत नहीं सकता।
महा
अजय संसार रिपु जीति सकइ सो बीर।
जाके
अस रथ होय दृढ़ सुनहुँ सखा मति धीर ।।
हे मित्र! वास्तव में अजेय रावण नहीं
अपितु यह संसार है। जो योगी व्यक्ति इसे जीत लेता है वही सच्चा वीर है और इसे वही
जीत सकता है जिसके पास यह धर्ममय रथ होता है।
अतः आप चिन्ता तनिक भी ना करें हमारे पास जो धर्ममय रथ है उसके कारण निश्चित
रूप से विजय हमारी ही होगी।
नवधा भक्ति
नवधा भकति कहउँ तोहि पाहीं। सावधान सुनु धरु मन माहीं।।
प्रथम भगति संतन्ह कर संगा।
प्रथम भक्ति का प्रारम्भ है संन्तों की प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष संगति में रहना और वैसा ही आचरण करना। जैसा संग-वैसा रंग।
दूसरि रति मम कथा प्रसंगा।
कथा, लीला, गुणगान करने में रूचि लेना ईश्वर की दूसरी भक्ति है।
गुर पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान।
अमान - अहंकार रहित होकर मन-वचन-कर्म से गुरुओं की सेवा करना।
चैथि भगति मम गुन गन, करइ कपट तजि गान।।
कपट तजि - छल कपट से रहित होकर सच्ची श्रद्धा और भक्ति पूर्वक ईश्वर के गुणों का गान करना क्योंकि स्तुति से प्रीति पैदा होती है।
मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा। पंचम भजन सो बेद प्रकासा।।
भावनापूर्वक मंत्र जाप और ईश्वर में दृढ़ विश्वास होना। विश्वास से, वेद प्रकासा - ज्ञान का प्रकाश होता है, तज्जपस्तदर्थ भावनम्। ‘‘ततः क्षीयते प्रकाशावरणम्’’ पंचम भक्ति से ज्ञान का प्रकाश होता है।
छठ दम सील बिरति बहु करमा। निरत निरन्तर सज्जन धरमा।।
इन्द्रियों के दमन पूर्वक, शील की रक्षा करते हुए बिना आसक्ति के अनेक प्रकार के सेवा कार्य, परहित कर्म करना। सदा सर्वदा सज्जनों के धर्मो में लगे रहना यही छठी प्रकार की भक्ति है।
सातवँ सम मोहि मय जग देखा। मोतें सन्त अधिक करि लेखा।।
संसार को भगवान् का ही सगुण-साकार रूप मानना सर्वत्र भागवत् दर्शन, सन्तों को भगवान् से भी अधिक सम्मान देना यह सातवीं भक्ति है।
आठवँ जथालाभ सन्तोषा। सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा।।
अपने कर्मों के अनुसार जितना मिला उसके प्रति कृतज्ञता और संतोष का भाव, दूसरों के दोषों को नहीं देखना ‘‘परनिन्दा सम नहि अधमाई’’। यह आंठवी भक्ति है।
नवम सरल सब सन छलहीना। मम भरोस हिय हरष न दीना।।
मन-वचन कर्म से सरल-ऋजु तथा संशय और छलरहित व्यवहार भगवान् पर भरोसा और हृदय हमेशा मुदिता हर्ष से भर रहे, दीन हीन बनकर अवसाद में न जाये। यह नवम् भक्ति है।
नव महुँ एकउ जिन्ह के होई। नारि पुरुष सचराचर कोई।।
मम दरसन फल परम अनूपा। जीव पाव निज सहज सरूपा ।।
भागवत पुराण के अनुसार नवधा भक्ति
श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्। अर्चनं वन्दनं दास्यं साख्यमात्मनिवेदनम्।।
(1) श्रवण=परीक्षित (2) कीर्तन=शुकदेव (3) स्मरण=प्रहलाद (4) पादसेवन=लक्ष्मी
(5) अर्चन=पृथुराजा (6) वन्दन=अक्रूर (7) दास्य=हनुमान (8) साख्य=अर्जुन (9) आत्मनिवेदन=बलिराजा
उत्थित लोलासन क्या है ? उत्थित लोलासन करने का सरल विधि , विशेष लाभ , सावधानी और निष्कर्ष उत्थित लोलासन (Utthita Lolasana) एक योगासन...