नवधा भक्ति
नवधा भकति कहउँ तोहि पाहीं। सावधान सुनु धरु मन माहीं।।
प्रथम भगति संतन्ह कर संगा।
प्रथम भक्ति का प्रारम्भ है संन्तों की प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष संगति में रहना और वैसा ही आचरण करना। जैसा संग-वैसा रंग।
दूसरि रति मम कथा प्रसंगा।
कथा, लीला, गुणगान करने में रूचि लेना ईश्वर की दूसरी भक्ति है।
गुर पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान।
अमान - अहंकार रहित होकर मन-वचन-कर्म से गुरुओं की सेवा करना।
चैथि भगति मम गुन गन, करइ कपट तजि गान।।
कपट तजि - छल कपट से रहित होकर सच्ची श्रद्धा और भक्ति पूर्वक ईश्वर के गुणों का गान करना क्योंकि स्तुति से प्रीति पैदा होती है।
मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा। पंचम भजन सो बेद प्रकासा।।
भावनापूर्वक मंत्र जाप और ईश्वर में दृढ़ विश्वास होना। विश्वास से, वेद प्रकासा - ज्ञान का प्रकाश होता है, तज्जपस्तदर्थ भावनम्। ‘‘ततः क्षीयते प्रकाशावरणम्’’ पंचम भक्ति से ज्ञान का प्रकाश होता है।
छठ दम सील बिरति बहु करमा। निरत निरन्तर सज्जन धरमा।।
इन्द्रियों के दमन पूर्वक, शील की रक्षा करते हुए बिना आसक्ति के अनेक प्रकार के सेवा कार्य, परहित कर्म करना। सदा सर्वदा सज्जनों के धर्मो में लगे रहना यही छठी प्रकार की भक्ति है।
सातवँ सम मोहि मय जग देखा। मोतें सन्त अधिक करि लेखा।।
संसार को भगवान् का ही सगुण-साकार रूप मानना सर्वत्र भागवत् दर्शन, सन्तों को भगवान् से भी अधिक सम्मान देना यह सातवीं भक्ति है।
आठवँ जथालाभ सन्तोषा। सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा।।
अपने कर्मों के अनुसार जितना मिला उसके प्रति कृतज्ञता और संतोष का भाव, दूसरों के दोषों को नहीं देखना ‘‘परनिन्दा सम नहि अधमाई’’। यह आंठवी भक्ति है।
नवम सरल सब सन छलहीना। मम भरोस हिय हरष न दीना।।
मन-वचन कर्म से सरल-ऋजु तथा संशय और छलरहित व्यवहार भगवान् पर भरोसा और हृदय हमेशा मुदिता हर्ष से भर रहे, दीन हीन बनकर अवसाद में न जाये। यह नवम् भक्ति है।
नव महुँ एकउ जिन्ह के होई। नारि पुरुष सचराचर कोई।।
मम दरसन फल परम अनूपा। जीव पाव निज सहज सरूपा ।।
भागवत पुराण के अनुसार नवधा भक्ति
श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्। अर्चनं वन्दनं दास्यं साख्यमात्मनिवेदनम्।।
(1) श्रवण=परीक्षित (2) कीर्तन=शुकदेव (3) स्मरण=प्रहलाद (4) पादसेवन=लक्ष्मी
(5) अर्चन=पृथुराजा (6) वन्दन=अक्रूर (7) दास्य=हनुमान (8) साख्य=अर्जुन (9) आत्मनिवेदन=बलिराजा