शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्।
(महाकवि कालिदास - महाकाव्य 'कुमारसम्भवम्')
शरीर ही धर्म करने का पहला साधन है। इसका मतलब है कि अगर शरीर स्वस्थ है, तो धर्म के सभी साधन अपने-आप सफल होते जाते हैं। वहीं, अगर शरीर अस्वस्थ है, तो धर्म का कोई भी साधन सफल नहीं हो सकता।
शरीर की सारे कर्तव्यों को पूरा करने का एकमात्र साधन है। इसलिए शरीर को स्वस्थ रखना बेहद आवश्यक है, क्योंकि सारे कर्तव्य और कार्यों की सिद्धि इसी शरीर के माध्यम से ही होनी है। अतः इस अनमोल शरीर की रक्षा करना और उसे निरोगी रखना मनुष्य का सर्वप्रथम कर्तव्य है। ‘पहला सुख निरोगी काया’ यह स्वस्थ रहने का मूल-मंत्र है।
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