दैवीय सम्पद्

 

दैवीय सम्पद्


अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः।
दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम्।।

            श्रीभगवान् ने कहा- निर्भयता, सत्त्वसंशुद्धि, ज्ञान-योगव्यवस्थिति अर्थात् ज्ञान और योग में दृढ स्थिति दान, दम, यज्ञ, स्वाध्याय, तप आर्जव है।

अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम्।
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम् ।।

            अप्रियता और असत्य से रहित यथार्थ वचन, दूसरों की ओर से गाली या ताड़ना आदि मिलने पर उत्पन्न हुए क्रोध को शान्त कर लेना, अहंकार व स्वार्थ का परित्याग, चुगली न करना, प्राणियों, कोमलता, बुरे कामों में लज्जा, चंचलता का अभाव अर्थात् बिना प्रयोजन वाणी, हाथ, पैर आदि की व्यर्थ क्रियाओं का न करना।

तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता।
भवति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत ।।

            महान् विपत्ति में भी कर्त्तव्य-निश्चय की क्षमता तथा मन को विषयासक्ति से रोके रखने की क्षमता का नाम धृति है। बाह्य शुद्धि, द्रोह न करना अर्थात् किसी के साथ विश्वासघात न करना, घमण्ड न करना। है भारत! ये गुण दैवी सम्पत्ति को अभिलक्ष्य कर जन्म लेने वाले पुरुष के होते हैं।

दम्भो दर्पोSतिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च।
अज्ञानं चाभि जातस्य पार्थ सम्पदमासुरीम्।।

            हे पार्थ! जैसा हेउससे अन्य रूप में स्वयं को प्रकट करना/झूठा दिखावा करना, धन, रूप, बल या कुल आदि का गर्व, अपने में ही उत्कृष्टता समझना तथा अपनी वास्तविक योग्यता से अपना अधिक आकलन करना, क्रोध, पारुष्य अर्थात् वाणी की कठोरता और अज्ञान- ये दोष आसुरी सम्पत्ति को अभिलक्ष्य कर जन्मे हुए मनुष्य के होते हैं।

दैवी सम्पद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता।
मा शुचः सम्पदं दैवीमभि जातोSसि पाण्डव।।

            इनमें दैवी सम्पत्ति परिणाम में मोक्षदायक और आसुरी बन्धनकारक मानी जाती है। हे पाण्डव! तू दैवी सम्पत्ति को साथ लेकर जन्मा हुआ है, अतः शोक मत कर।


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